महत्त्वपूर्ण कानूनों से संबंधित मुकदमे
अनिवासी भारतीयों से विवाहों संबंधी महत्त्वपूर्ण कानूनों से संबंधित मुकदमे
- रूची माजू बनाम संजीव माजू मुकदमा संख्या : वर्ष 2003 की सिविल अपील संख्या 4435 और वर्ष 2011 की दांडिक अपील संख्या 1184, निर्णय की तारीख : 16 मई, 2011
- हरमीता सिंह बनाम रजत तनेजा 102 (2003) डीएलटी 822 में विवाह के बाद छह महीने में ही पत्नी को उसके पति ने छोड़ दिया क्योंकि उसे अमेरिका में अपने पति के पास जाने के बाद तीन महीने में ही अपना ससुराल छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। जब उस पत्नी ने भारत में हिंदू दत्तकग्रहण और भरणपोषण अधिनियम के अधीन भरणपोषण के लिए वाद दायर किया तब उच्च न्यायालय ने इस वाद में अंतरिम आवेदन का निपटान पति द्वारा अमेरिका में अमेरिकी न्यायालय में दायर की गई विवाह-विच्छेद याचिका में कार्यवाही जारी रखे जाने पर रोक लगाने का आदेश पारित करके किया तथा पति को इस आदेश की प्रति अमेरिकी न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने को भी कहा गया।
न्यायालय ने यह आदेश पारित करते समय कुछ अन्य टिप्पणियां कीं, जिनमें से मुख्य टिप्पणी यह थी कि यदि वह पति अमेरिका में विवाह-विच्छेद डिक्री प्राप्त करने में सफल हो भी गया तो भी उस डिक्री को भारत में मान्यता प्राप्त होने की संभावना नहीं है क्योंकि इस मामले में क्षेत्राधिकार भारतीय न्यायालय को प्राप्त था और अमेरिकी न्यायालय का क्षेत्राधिकार सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 13 के अधीन सिद्ध करना होगा। तब न्यायालय ने यह कहा कि भारत में अमेरिकी डिक्री को मान्यता प्राप्त होने तक भारत में उस पति को द्विविवाह करने का दोषी माना जाएगा और उसे इस विषय में दांडिक कार्रवाई भुगतनी होगी। न्यायालय का यह भी कहना था कि चूंकि अमेरिका में उस पत्नी के रहने की अवधि बहुत कम, अस्थायी और आकस्मिक थी और वह अमेरिकी न्यायालय में अभियोजन मुकदमा चलाने के लिए वित्तीय रूप से सक्षम नहीं होगी इसलिए इस मामले में दिल्ली न्यायालय ही सुविधाजनक फोरम होंगे।
- विकास अग्रवाल बनाम अनुभा (एआईआर 2002 एससी 1796) मामले में उच्च न्यायालय में पत्नी द्वारा दायर किए गए भरणपोषण वाद में उच्च न्यायालय द्वारा अनिवासी भारतीय पति को स्वयं न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिए जाने और उपस्थित होने के कई अवसर दिए जाने के बावजूद उस पति के उच्च न्यायालय में उपस्थित न होने के कारण उसकी अपने बचाव में प्रस्तुत की गई दलीलों को उच्च न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर पति ने उच्चतम न्यायालय में अपनी याचिका दायर की थी। उच्च न्यायालय ने पति को स्वयं उपस्थित होकर उन परिस्थितियों के विषय में स्पष्टीकरण देने का निर्देश दिया था, जिनमें अमेरिकी न्यायालय में कार्यवाही जारी रखे जाने पर भारतीय न्यायालय द्वारा रोक लगाए जाने का आदेश पारित किए जाने के बावजूद अमेरिकी न्यायालय ने अमेरिका में उस पति द्वारा दायर की गई विवाह-विच्छेद याचिका पर कार्यवाही को आगे बढ़ाते हुए विवाह-विच्छेद डिक्री पारित की। उच्च न्यायालय ने उक्त पति के स्वयं उपस्थित होने से छूट इस आधार पर प्रदान किए जाने के आवेदन को भी अस्वीकार कर दिया, कि उसे आशंका थी कि उसकी पत्नी द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 498 क के अधीन दायर मामले में उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को बनाए रखते हुए यह माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) का आदेश X ऐसा समर्थनकारी प्रावधान है, जो कि कुछ प्रयोजनों के लिए न्यायालयों को अधिकार प्रदान करता है। अतः, उच्च न्यायालय द्वारा पति को अपना स्पष्टीकरण देने के लिए स्वयं उपस्थित होने का निर्देश दिया जाना विशेषकर इस कारण से सर्वथा उचित है कि विचारण न्यायालय में दायर किए गए शपथपत्र के साथ संलग्न किया गया अमेरिका में पति के वकील का शपथपत्र उसकी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं था और उक्त पति के पिता, जैसी कि विचारण न्यायालय को जानकारी प्राप्त हुई, इस मामले पर प्रकाश नहीं डाल पाए क्योंकि वे अमेरिका में न्यायालय की कार्यवाही के समय उपस्थित नहीं थे। इसके अतिरिक्त, न्याय की दिशा में आगे बढ़ने और न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग की रोकथाम करने के लिए जब कभी आवश्यक हो तभी सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 में निहित न्यायालय के अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है।
- वेन्कट पेरुमल बनाम आंध्र प्रदेश सरकार ।। (1998) डीएमसी 523 ऐसा निर्णय है, जो कि पत्नी के साथ ससुराल में हुए क्रूरतापूर्ण व्यवहार के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 498 क के अधीन हैदराबाद में पति की शिकायत पर हुई कार्यवाही को अमान्य घोषित किए जाने के लिए अनिवासी भारतीय पति द्वारा दायर आवेदन पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा पारित किया गया। पत्नी ने यह आरोप लगाया था कि मद्रास में थोड़े समय तक और अमेरिका में भी निवास की अवधि के दौरान जब उसने अपना गर्भपात कराने के पति के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया तब उसका उत्पीड़न, अपमान किया गया और उसे यातनाएं दी गईं। उसे उसके पति ने बिना कोई रुपया-पैसा दिए अमेरिका के डलास हवाई अड्डे पर छोड़ दिया और वह अपनी आन्टी की मदद से ही भारत लौट पाई। इस अपमान और मानसिक पीड़ा के कारण हैदराबाद में उसका गर्भपात हो गया।
उच्च न्यायालय ने यह माना कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498 क के अधीन अपराध निरंतर किया जाने वाला अपराध है और उस पत्नी का मानसिक उत्पीड़न तब भी जारी रहा जब वह हैदराबाद में अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। अतः, न्यायालय ने उक्त पति के इस दावे को अस्वीकार कर दिया कि अभियोजन के लिए उक्त संहिता की धारा 188 के अधीन अपेक्षित केंद्र सरकार की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है और यह माना कि अन्यथा भी यह दांडिक कार्यवाही शुरू करने की कोई पूर्वापेक्षा नहीं है तथा यह स्वीकृति यदि आवश्यकता हो तो बाद में विचारण के दौरान भी प्राप्त की जा सकती है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि उस आधार पर कार्यवाही को अमान्य घोषित किया जा सकता है।
न्यायालय ने इस दलील को भी अस्वीकार कर दिया कि पति द्वारा प्रस्तुत की गई अमेरिकी न्यायालय की विवाह-विच्छेद डिक्री से उसके निर्णय पर कोई प्रभाव पड़ता है क्योंकि कुछ भी हो, पत्नी ने प्राथमिकी अमेरिकी न्यायालय की डिक्री की तारीख से पहले दायर कर दी थी।
- नीरजा सराफ बनाम जयंत सराफ (1994) 6 एससीसी 461 में निर्णय जिन तथ्यों के आधार पर पारित किया गया, वे इस प्रकार हैं : अमेरिका में नौकरी कर रहे सॉफ्टवेयर इंजीनियर से विवाह करने वाली अपीलार्थी पत्नी विवाह के बाद अमेरिका वापस चले गए अपने पति के पास जाने के लिए अपना वीसा प्राप्त करने की कोशिशें कर ही रही थी कि उसे अपने अनिवासी भारतीय पति द्वारा अमेरिकी न्यायालय में दायर की गई विवाह के बातिलकरण की याचिका प्राप्त हुई। उसने ऐसी परिस्थितियों में नुकसानी का वाद दायर किया क्योंकि उसे न केवल भावनात्मक एवं मानसिक पीड़ा पहुँची थी, बल्कि अमेरिका जाने की आशा से उसने अपनी नौकरी भी छोड़ दी थी। विचारण न्यायालय ने 22 लाख रुपए की डिक्री पारित की। अपील में उच्च न्यायालय ने एक लाख रुपए न्यायालय में जमा कराए जाने की शर्त पर अंतिम निपटान होने तक उक्त डिक्री के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी। पत्नी द्वारा अपील दायर किए जाने पर उच्चतम न्यायालय ने पत्नी के पक्ष में उच्च न्यायालय के आदेश में आशोधन करते हुए जमा राशि को बढ़ाकर तीन लाख रुपए कर दिया।
अंतरिम आवेदन में इस आदेश का आधार सीमित होते हुए भी, इस मामले से यह पता चलता है कि ऐसे मामलों में पत्नी द्वारा नुकसानी का वाद दायर किया जाना व्यावहारिक उपाय है। यहाँ यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि न्यायालय ने और बातों के अलावा कुछ टिप्पणियां भी की थीं, जो कि इस प्रकार हैं :
आगे दर्शाए गए उपबंधों को शामिल करते हुए महिलाओं के हितों के रक्षोपायों के लिए विधान की व्यावहारिकता पर विचार किया जाए-
- किसी अनिवासी भारतीय और भारतीय महिला के भारत में हुए किसी भी विवाह का बातिलकरण किसी भी विदेशी न्यायालय में न किया जाए;
- भारत और विदेश, दोनों स्थानों पर स्थित पति की संपत्ति से पत्नी को पर्याप्त निर्वाह-धन दिए जाने का उपबंध किया जाए;
- कोमिटी के सिद्धांत के आधार पर और पारस्परिक समझौते करके भारतीय न्यायालयों द्वारा पारित डिक्री को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 44-क की भांति विदेशी न्यायालयों में कार्यान्वयन योग्य बनाया जा सकता है, जिसके द्वारा विदेशी डिक्री भी उसी प्रकार कार्यान्वयन योग्य बन जाती है, जैसे कि वह डिक्री उसी न्यायालय द्वारा पारित की गई हो।
- राजीव तयाल बनाम भारत सरकार और अन्य (124 (2005) डीएलटी 502: 2005 (85) डीआरजे 146) ऐसा एक और निर्णय है, जिससे यह पता चलता है कि यदि अनिवासी भारतीय पति भारतीय न्यायालयों द्वारा जारी समन का जवाब न दे तो उसकी पत्नी को पासपोर्ट अधिनियम की धारा 10 के अधीन उसका पासपोर्ट जब्त और/या मन्सूख कराने का उपाय उपलब्ध है।
इस मामले में अनिवासी भारतीय पति ने विदेश मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली के निर्देशों पर उसका पासपोर्ट जब्त करने के लिए न्यूयार्क, अमेरिका स्थित भारत के कॉन्सुलेट जनरल द्वारा पारित आदेश को अमान्य घोषित किए जाने की मांग करते हुए रिट याचिका दायर की थी। उसने विचारण न्यायालय द्वारा उसे ‘उद्घोषित अपराधी’ घोषित किए जाने के विचारण न्यायालय के आदेश को भी चुनौती दी थी। उक्त अनिवासी भारतीय पति ने इस आधार पर कि वह अमेरिका में रहता है और भारत में उस पर दांडिक मुकदमा चलाना उस पर अनुचित भार होगा, महानगर दंडाधिकारी के समक्ष लंबित कार्यवाही में शामिल होने से इनकार करते हुए भी यह याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता ने यह भी दलील दी कि उसे समन तामील नहीं किए गए थे और उसके मामले में जांच उसे प्रश्नावली भेजकर की जानी चाहिए तथा उसे भारत में की जा रही जांच में शामिल होने को नहीं कहा जाना चाहिए।
न्यायालय ने यह माना कि इस दलील को स्वीकार करना तो अभियुक्त पति के लिए विदेश में रहने का इनाम होगा। सिर्फ विदेश चले जाने से कोई व्यक्ति भारत के नागरिक से ऊँचे दर्जे का दावा नहीं कर सकता है। तब तो ऐसा कोई भी अभियुक्त कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग करते हुए ऐसी विशेष प्रक्रिया की मांग करके भारतीय दांडिक व्यवस्था का मखौल उड़ा सकता है, जो कि दांडिक न्यायशास्त्र के सिद्धांतों के विपरीत है। न्यायालय ने अपना निर्णय अभियुक्त पति के इस आचरण को भी ध्यान में रखते हुए पारित किया कि उसकी गिरफ्तारी या उसके पासपोर्ट के संबंध में किसी भी अन्य दांडिक परिणाम से उसे उपयुक्त संरक्षण प्रदान किए जाने का आश्वासन न्यायालय द्वारा बार-बार दिए जाने के बावजूद भी उसने कार्यवाही में शामिल होने से इनकार कर दिया और इस बात पर जोर दिया कि उत्तर देने से पहले उसे समन तामील किया जाना चाहिए, जो कि हाइपरटैक्निकल दलील है।
इसलिए न्यायालय ने यह माना कि संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करने के कारण पासपोर्ट अधिनियम की धारा 10 (ङ) और (ज) के अवैध होने की उक्त पति की दलील निराधार है और इस प्रकार ऐसे उपबंधों की संवैधानिक वैधता की दलील अस्वीकृत हो गई।
- मार्गरेट पल्पारामपिल बनाम चाको पल्पारामपिल (एआईआप 1970 केईआर 1), भारतीय न्यायालय के समक्ष आया ऐसा सबसे पुराना मुकदमा है, जिसमें अनिवासी भारतीय से विवाह के मामले में बच्चों की अभिरक्षा का मुद्दा शामिल था। इस निर्णय में केरल उच्च न्यायालय ने अभिरक्षा मुद्दे के निर्णयन के लिए न्यायालय के क्षेत्राधिकार को सिद्ध करने के लिए न केवल ‘वास्तविक और पर्याप्त संबंध’ के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को बल्कि किसी माता/पिता द्वारा गैर-कानूनी ढंग से ले जाए गए बालक की अभिरक्षा का दावा करने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का उपचार उपलब्ध होने को भी मान्यता प्रदान की। यहां न्यायालय ने बालक को जर्मनी में रह रही उसकी माँ के पास वापस भेजे जाने की अनुमति इस तथ्य के बावजूद दी कि ऐसी अनुमति दिए जाने से बालक भारतीय न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से बाहर चला जाएगा क्योंकि न्यायालय का यह मानना था कि बालक का हित ही सर्वाधिक विचारणीय विषय है और इस मामले में बालक की अभिरक्षा जर्मनी में रह रही उसकी माँ को दिया जाना आवश्यक है। साथ ही न्यायालय ने हितों के टकराव में संतुलन स्थापित करने के लिए अनेक निर्देश पारित करके यह सुनिश्चित किया कि इस प्रक्रिया में भारत में रह रहे पिता को अपने अभिभावकीय अधिकारों से पूरी तरह वंचित न होना पड़े, जो कि इस प्रकार थे:
- याचिकाकर्ता इस न्यायालय में बंधपत्र निष्पादित करेगी कि जब कभी न्यायालय द्वारा आदेश दिया जाए तब बालकों को प्रस्तुत किया जाएगा।
- याचिकाकर्ता द्वारा मद्रास में स्थित जर्मन कॉन्सुलेट प्राधिकरण से प्राप्त यह वचनबंध प्रस्तुत किया जाएगा कि वे इस न्यायालय द्वारा समय-समय पर पारित किसी भी आदेश के कार्यान्वयन के लिए जर्मन कानूनों के फ्रेमवर्क के अनुसार समस्त संभव सहायता प्रदान करेंगे।
- याचिकाकर्ता जिस भी पैरिश में रहने का प्रस्ताव करे, उस पैरिश के पैरिश प्रीस्ट से हर तीन महीने में रिपोर्ट प्राप्त करके उस रिपोर्ट को याचिकाकर्ता इस न्यायालय को भेजेगी, जिसमें बालकों के स्वास्थ्य और कल्याण का ब्यौरा दर्शाया जाएगा तथा उस रिपोर्ट की एक प्रति पिता को भी भेजेगी।
- याचिकाकर्ता इस न्यायालय के रजिस्ट्रार को समय-समय पर अपने निवासस्थान के पते की सूचना देगी और पते में किसी भी बदलाव की जानकारी तुरंत दी जाएगी।
- इस आदेश में दिए गए निर्देशानुसार बालकों को इस देश में लाए जाने के सिवाए याचिकाकर्ता इस न्यायालय के आदेश पहले से प्राप्त किए बिना बालकों को पश्चिमी जर्मनी से बाहर नहीं ले जाएगी।
- उसे तीन वर्ष में एक बार अपने खर्च से कम से कम एक महीने की अवधि के लिए बालकों को इस देश में लाना होगा। उस समय बालकों के इस देश में पहुँच जाने पर इस न्यायालय के निर्देशानुसार शर्तों एवं निबंधनों पर पिता इन बालकों से मिल सकेगा। तीन वर्ष की यह अवधि उस तारीख से निर्धारित की जाएगी, जब माँ इन बालकों को इस देश से बाहर ले जाएगी। यदि पिता जर्मनी से भारत और वापस जर्मनी तक माता एवं बालकों की यात्रा का खर्च वहन करने को इच्छुक तो पिता के अनुरोध पर न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशानुसार इन बालकों को उस अवधि से पहले भारत लाया जाएगा, बशर्ते कि ऐसा अनुरोध आज की तारीख से एक वर्ष से कम समय में न किया गया हो।
- यदि पिता जर्मनी जा रहा हो तो उसे वहाँ जाने और बालकों से मिलने की अपनी इच्छा की जानकारी देते हुए और बालकों से मिलने की अनुमति दिए जाने का अनुरोध करते हुए दायर किए जाने वाले उसके समावेदन पर इस न्यायालय के आदेशानुसार निर्धारित शर्तों एवं निबंधनों पर बालकों से मिलने की अनुमति दी जाएगी।
- तीन वर्ष की अवधि समाप्त होने पर जब बालकों को भारत लाया जाएगा तब यह न्यायालय स्व-प्रेरणा से अथवा पिता या माता के अनुरोध पर अभिरक्षा के इस संपूर्ण मुद्दे की समीक्षा करके मौजूदा आदेश को बनाए रख सकेगा, आशोधित कर सकेगा या उसमें बदलाव कर सकेगा या मौजूदा आदेश को रद्द कर सकेगा।
- सुरिंदर कौर संधू बनाम हरबख्श सिंह संधू, एआईआर 1984 एससी 1224 में उच्चतम न्यायालय को उन परिस्थितियों में पत्नी/माता की अभिरक्षा का निर्णयन करना था, जिन परिस्थितियों में पत्नी के इंग्लैंड में रहते हुए भी पति गुप्त रूप से बालकों को भारत में स्थित अपने माता-पिता के घर ले आया था, जबकि इंग्लैंड में स्थित न्यायालय ने इंग्लैंड में बालकों की अभिरक्षा के विषय में आदेश पहले ही पारित कर दिया था। न्यायालय ने बालकों के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेने के लिए सभी संगत तथ्यों पर विचार किया और इसी विचार के आधार पर बालकों की अभिरक्षा अंततः माता को दिए जाने का निर्देश दिया।
- एलिजाबेथ दिनशॉ बनाम अरवन्द दिनशॉ (मनु/एससी/0312/1986) में उच्चतम न्यायालय ने अमेरिकी न्यायालय द्वारा माता के पक्ष में पारित अभिरक्षा आदेशों के विपरीत पिता द्वारा बालक को अमेरिका से भारत लाए जाने के मामले में कार्रवाई करते हुए बालक को वापस अमेरिका में उसकी माता के पास भेजे जाने का निर्देश न केवल कोमिटी के सिद्धांत के कारण बल्कि उन तथ्यों - जिन पर अलग से विचार किया गया था - के आधार पर भी दिया कि बालक को उसकी जन्मभूमि पर वापस भेजना ही उसके सर्वोत्तम हित में था। उस मामले में पिता द्वारा बालक को भारत लाए जाने और माता द्वारा भारत में आवेदन दायर किए जाने के कार्य छह महीने की अवधि में किए गए।
- कुलदीप सिद्धू बनाम चानन सिंह (एआईआर 1989 पीएंडएच 103) में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी यही मत व्यक्त किया कि बालकों का सर्वोत्तम हित इसी बात में है कि कनाडा में रह रही उनकी माता को उन बालकों को भारत से वापस कनाडा ले जाने की अनुमति दी जाए, जहाँ वह रह रही थी जब कि वे बालक भारत में अपने दादा-दादी के पास रह रहे थे और उनके पिता तब भी कनाडा में थे और वैसे भी कनाडा में सक्षम न्यायालय बालकों की अभिरक्षा माता को सौंप ही चुका था।
- धनवन्ती जोशी बनाम माधव अंदेर (1998) 1 एससीसी 112, अनिवासी भारतीय पति पहले से ही किसी अन्य महिला के साथ विवाहित था और उसने सब्सिस्टेन्स के दौरान दूसरी पत्नी अर्थात धनवन्ती जोशी से विवाह कर लिया। धनवन्ती को उससे एक पुत्र उत्पन्न हुआ और जब बालक की आयु केवल 35 दिन थी तब वह अपने पति का घर छोड़ अपने शिशु के साथ वापस भारत आ गई। जब उस बालक की आयु 12 वर्ष से भी अधिक हो गई तब उच्चतम न्यायालय को उसकी अभिरक्षा का निर्णयन करने का अवसर प्राप्त हुआ और उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय किया कि भले ही पिता ने अमेरिकी न्यायालय से बालक की अभिरक्षा प्राप्त कर ली हो, बालक के सर्वोत्तम हितों के लिए यही आवश्यक है कि पिता को बालक से मिलने के अधिकार के अधीन, बालक को भारत में अपनी माता के साथ रहने की अनुमति दी जाए, जिसने भारत में रहते हुए अकेले ही उस बालक को बड़ा किया है।
- सरिता शर्मा बनाम सुशील शर्मा ([2000] 1 एससीआर 915) मामले में, याचिकाकर्ता पति ने अमेरिकी न्यायालयों में विवाह-विच्छेद का मुकदमा दायर किया था और अभिरक्षा के संबंध में कानूनी संघर्ष अभी जारी ही था और दोनों ही पक्षकारों को बालकों का प्रबंधकीय संरक्षक नियुक्त किया गया था कि पत्नी कथित रूप से पति को सूचित किए बिना बालकों को भारत ले आई। पति का यह आरोप था कि बालक सरिता शर्मा की गैर-कानूनी अभिरक्षा में थे और उच्च न्यायालय ने याचिका को मंजूर करते हुए सरिता शर्मा को दोनों बालकों को वापस पति की अभिरक्षा में देने का निर्देश दिया। उन दोनों बालकों के पासपोर्ट भी पति को ही सौंपे जाने के आदेश दिए गए। अपील में उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि विदेशी न्यायालय द्वारा पारित डिक्री संगत कारक हो सकती है लेकिन वह डिक्री अवयस्क बालकों के कल्याण संबंधी विचार पर अभिभावी नहीं हो सकती है और इस संबंध में संदेह व्यक्त किया कि क्या वह पति अपनी बुरी आदतों के कारण और अमेरिका में बिना किसी और पारिवारिक सहायता के अपनी वृद्धा माँ के साथ रहने के कारण भी बालकों की समुचित देखरेख करने की स्थिति में होगा? उच्चतम न्यायालय का यह भी कहना था कि सामान्यतः बालिका को अपनी माता के साथ रहने की अनुमति दी जानी चाहिए, ताकि उसकी समुचित देखरेख हो पाए तथा यह भी वांछनीय नहीं है कि दोनों बालकों को एक-दूसरे से अलग कर दिया जाए और इसीलिए भारत में माता की अभिरक्षा गैर-कानूनी अभिरक्षा नहीं है।
धारा 13 की एक और महत्त्वपूर्ण व्याख्या नरसिम्हा राव बनाम वेन्कट लक्ष्मी [1991] 2 एससीआर 821 में उच्चतम न्यायालय के निर्णाय में देखने में आई।
इस मामले की तथ्यात्मक स्थिति भी बहुत समान थी : विवाह के विघटन की डिक्री अमेरिका में सेंट लूई काउंटी, मिसूरी के सर्किट न्यायालय ने वहाँ रह रहे पति द्वारा दायर विवाह-विच्छेद याचिका पर अपना क्षेत्राधिकार मानते हुए इस आधार पर पारित की थी कि उक्त पति कार्रवाई शुरू होने से पहले 90 दिनों से मिसूरी राज्य में रह रहा था, जो कि निवास की न्यूनतम अपेक्षा है। दूसरे यह डिक्री केवल इस आधार पर पारित की गई थी कि पक्षकारों के बीच वैवाहिक संबंध को बनाए रख पाने की कोई संभावना नहीं थी और वैवाहिक संबंध असुधार्य रूप से टूट चुका था। तीसरे प्रतिवादी पत्नी ने विदेशी न्यायालय के क्षेत्राधिकार को माना नहीं था।
सत्या बनाम तेजा मामले में जहाँ बात खत्म हुई थी वहीं से शुरू करते हुए न्यायालय ने इस मामले में धारा 13 के प्रत्येक खंड के अर्थ की व्याख्या की। इस निर्णय का संगत भाग का उद्धरण इस प्रकार है :
खंड (क) :
15. धारा 13 के खंड (क) में यह कहा गया है कि किसी भी ऐसे विदेशी निर्णय को मान्यता नहीं दी जाएगी, जिसे सक्षम क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय ने पारित न किया हो। हमारा मानना है कि इस खंड की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि सक्षम क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय वही न्यायालय होगा, जिसे उस अधिनियम या कानून में वैवाहिक विवादों पर विचार करने के लिए सक्षम क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय माना गया हो, जिस अधिनियम या कानून के अधीन पक्षकारों ने विवाह किया है। किसी भी अन्य न्यायालय को सक्षम क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय तब तक नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि दोनों पक्षकार स्वेच्छा से और बिना किसी शर्त के अपने संबंध में उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार को न मानें। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 41 में ‘सक्षम न्यायालय’ अभिव्यक्ति की व्याख्य़ा भी इसी प्रकार की जानी चाहिए।’
खंड (ख) :
16. ‘धारा 13 के खंड (ख) में यह कहा गया है कि यदि कोई विदेशी निर्णय मामले के गुण-दोष के आधार पर नहीं दिया गया है तो इस देश के न्यायालय ऐसे निर्णय को मान्यता नहीं देंगे। इस खंड की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए (क) कि विदेशी न्यायालय के निर्णय का आधार उस कानून में उपलब्ध होना चाहिए, जिसके अधीन पक्षकारों का विवाह हुआ है और (ख) कि निर्णय दोनों पक्षकारों की बात सुनने के बाद पारित किया जाना चाहिए। दूसरी अपेक्षा तभी पूरी होती है जब प्रतिवादी को समन की विधिवत तामील की जाए और प्रतिवादी अपने संबंध में न्यायालय के क्षेत्राधिकार को स्वेच्छा से और बिना किसी शर्त के माने तथा प्रतिवाद करे या न्यायालय में उपस्थित होकर या उपस्थित हुए बिना डिक्री पारित किए जाने के लिए सहमति प्रदान करे। न्यायालय के क्षेत्राधिकार को माने बिना विरोध करते हुए केवल दावे का उत्तर प्रस्तुत किए जाने या न्यायालय के क्षेत्राधिकार पर आपत्ति करने के लिए स्वयं या किसी प्रतिनिधि के माध्यम से न्यायालय में उपस्थित होने को मामले के गुण-दोष के आधार पर निर्णय नहीं माना जाना चाहिए। अन्य मामलों और क्षेत्रों में वैध हो सकने वाले किसी न्यायालय के क्षेत्राधिकार की अनुमति संबंधी सामान्य नियमों की इस संबंध में अनदेखी की जानी चाहिए और उन्हें अनुपयुक्त माना जाना चाहिए।’
खंड (ग) :
17. धारा 13 के खंड (ग) के दूसरे भाग में कहा गया है कि जहाँ निर्णय इस देश के कानून को उन मामलों में मान्यता प्रदान न करने पर आधारित हो, जिन मामलों में ऐसा कानून लागू होता हो, वहाँ उस निर्णय को इस देश के न्यायालय मान्यता प्रदान नहीं करेंगे। इस देश में किए जाने वाले विवाह या तो इस देश के रीति-रिवाजों या इस देश में लागू सांविधिक कानून के अनुसार ही हो सकते हैं। अतः, वैवाहिक विवादों पर केवल वही कानून लागू हो सकता है, जिसके अधीन पक्षकारों का विवाह हुआ है, न कि कोई अन्य कानून। इसीलिए जब कोई विदेशी निर्णय ऐसे क्षेत्राधिकार या दलील पर आधारित हो, जिसे ऐसे कानून में मान्यता न दी गई हो, तब ऐसा निर्णय कानून के विरुद्ध होता है। इसलिए उस मामले में निर्णय अंतिम नहीं होता है तथा उसका प्रवर्तन इस देश में नहीं किया जा सकता है। इसी कारण से ऐसे निर्णय का प्रवर्तन धारा 13 के खंड (च) के अधीन नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसा निर्णय स्पष्ट रूप से इस देश में लागू विवाह कानून का उल्लंघन होगा।’
खंड (घ) :
18. धारा 13 के खंड (घ) के अनुसार विदेशी निर्णय का प्रवर्तन इस आधार पर नहीं किया जा सकता है कि जिस कार्यवाही में ऐसा निर्णय प्राप्त हुआ है, वह कार्यवाही नैसर्गिक न्याय के विपरीत है। इस खंड में उसी मूलभूत सिद्धांत का उल्लेख हुआ है, जिस पर सभ्य समाज की न्याय व्यवस्था आधारित होती है। तथापि, परिवार कानून से संबंधित मामलों जैसे कि वैवाहिक विवादों में इसकी विस्तारित व्याख्या केवल प्रक्रिया के तकनीकी नियमों के अनुपालन तक सीमित नहीं रखी जानी चाहिए। यदि किसी विदेशी न्यायालय में कार्यवाही के संदर्भ में दूसरे पक्ष को भी सुनने के नियम का कोई अर्थ है तो उस नियम के प्रयोजनार्थ प्रतिवादी को न्यायालय के प्रोसेस को विधिवत तामील किए जाने को ही पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए। यह जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है क्या प्रतिवादी स्वयं उपस्थित होकर या अपने प्रतिनिधि के माध्यम से उक्त कार्यवाही का प्रभावी ढंग से सामना करने की स्थिति में था या थी। यदि या जब कभी कोई भी पक्षकार अपील दायर करे तो या तब इस अपेक्षा को अपीलीय कार्यवाही पर भी समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। यदि विदेशी न्यायालय ने यह जानकारी प्राप्त नहीं की है या जहाँ कहीं आवश्यक हो वहाँ वादी से प्रतिवादी के प्रतिवाद के लिए यात्रा, निवास और मुकदमे की लागतों सहित आवश्यक प्रावधान करने की अपेक्षा करके प्रभावी मुकदमा सुनिश्चित नहीं किया है तो यह माना जाना चाहिए कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। इसी कारण से हम यह पाते हैं कुछ देशों के प्राइवेट इन्टरनैशनल कानून के नियमों में वाणिज्यिक मामलों में भी इस बात पर जोर दिया जाता है कि मुकदमा उस फोरम में दायर किया जाना चाहिए, जहाँ या तो प्रतिवादी का अधिवास है या जहाँ वह आदतन रहता है।’
उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर ही न्यायालय ने यह गोल्डन रूल निर्धारित किया, जिसका बाद वाले मामलों में बार-बार अनुपालन किया गया है और जिसे आधार बनाया गया है :
20. विदेशी न्यायालय द्वारा अपनाए गए क्षेत्राधिकार तथा जिस आधार पर राहत दी गई है, उस आधार को उस वैवाहिक कानून के अनुसार होना चाहिए, जिसके अधीन पक्षकारों का विवाह हुआ है। इस नियम के केवल तीन अपवाद भी न्यायालय ने ही निर्धारित किए, जो कि इस प्रकार हैं :
- जहाँ वैवाहिक मुकदमा उस फोरम में दायर किया गया हो, जहाँ प्रतिवादी का अधिवास है या वह आदतन या स्थायी रूप से रहता/रहती है तथा राहत से आधार पर दी गई हो, जो कि उस वैवाहिक कानून में उपलब्ध हो, जिसके अधीन पक्षकारों का विवाह हुआ है;
- जहाँ प्रतिवादी स्वेच्छा और प्रभावी तरीके से उपर्युक्त फोरम का क्षेत्राधिकार माने तथा उस वैवाहिक कानून के अधीन उपलब्ध आधार पर वादी के दावे का प्रतिवाद करे, जिसके अधीन पक्षकारों का विवाह हुआ है;
- जहाँ फोरम का क्षेत्राधिकार उस वैवाहिक कानून के उपबंधों के अनुसार न होते हुए भी, जिस कानून के अधीन पक्षकारों का विवाह हुआ है, प्रतिवादी राहत दिए जाने के लिए सहमति प्रदान करे।’
कानून की निश्चितता और पूर्वानुमेयता की बात करते हुए, न्यायालय ने यह कहा कि ‘अपने घोषित अपवादों के साथ उपर्युक्त नियम में न्यायसंगत और उचित होने का गुण है। इससे किसी भी पक्षकार के साथ कोई अन्याय नहीं होता है। किसी कानून विशेष के अधीन विवाह करने पर पक्षकारों को अपने अधिकारों और दायित्वों की जानकारी होती है तथा उन्हें ऐसी जानकारी होनी चाहिए। बाद में इस विषय में उनकी शिकायत की सुनवाई नहीं की जा सकती है या मौजूदा मामले की भांति उन्हें कानूनी दांव-पेच द्वारा इसकी उपेक्षा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इस नियम से यह लाभ भी है कि अधिवास, राष्ट्रीयता, स्थायी या अस्थायी या तदर्थ निवास, फोरम, समुचित कानून इत्यादि जैसे विभिन्न आधारों पर क्षेत्राधिकार और गुण-दोष के विषय में विभिन्न देशों के प्राइवेट इन्टरनैशनल कानून के नियमों की अनिश्चितता से विवाह नामक संस्था का बचाव होता है और राष्ट्रीय जीवन के सर्वाधिक अहम क्षेत्र में निश्चितता और सार्वजनिक नीति का अनुपालन सुनिश्चित होते हैं।’
न्यायालय के अनुसार हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन इस मामले में विवाह के विघटन की डिक्री पारित करने का क्षेत्राधिकार विदेशी न्यायालय को प्राप्त नहीं था और ना ही उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में विवाह हुआ था और ना ही पक्षकार अंतिम बार वहां रहे थे और ना ही प्रतिवादी उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में रही थी। डिक्री भी एक ऐसे आधार पर पारित की गई जो हिंदू विवाह अधिनियम जो विवाह पर लागू होता है, में नहीं था। इसके अलावा, पति द्वारा डिक्री यह दर्शाते हुए ली गई कि वह मसूरी राज्य का रहने वाला था जबकि रिकार्ड यह दर्शाता था कि वह केवल एक ‘पर्यटनशील व्यक्ति’ था। उसने केवल तलाक लेने के प्रयोजन से 90 दिन के निवास की अपेक्षा को केवल तकनीकी रूप से पूरा किया था। न्यायालय ने बार-बार दोहराया कि तलाक लेने के पयोजन के लिए आवास का तात्पर्य स्थायी आवास से नहीं अपितु ‘सामान्य निवास’ अथवा ऐसे निवास से होता है जो भविष्य में भी स्थायी आवास अभीष्ट है।
इसलिए अंतिम निर्णय यह था कि चूंकि फोरम के न्यायाधिकार क्षेत्र के साथ-साथ वह आधार जिस पर विदेशी न्यायालय ने मामले में डिक्री पारित की थी, उस अधिनयम के संगत नहीं थे जिसके तहत पक्षों का विवाह हुआ था, और प्रतिवादी ने न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की अधीनता को स्वीकार नहीं की और इसे पारित करने की सहमति नहीं दी, इसे इस देश के न्यायालयों द्वारा मान्यता नहीं दी जा सकती और यह अप्रवर्तनीय था।
न्यायालय ने अंत में कहा : ‘हम मानते हैं कि संहिता की धारा 13 के प्रासंगिक उपबंध लोक नीति, न्याय, निष्पक्षता और अच्छे विवेक के अनुसार कानून की इस शाखा के क्षेत्र में अपेक्षित निश्चितता हासिल करने के लिए व्याख्या करने में सक्षम हैं और इस प्रकार विकसित नियम विवाह व्यवस्था की पवित्रता और परिवार की अखंडता जो हमारे सामाजिक जीवन की आधारशिला हैं, संरक्षित करेंगे।’
वीना कालिया बनाम जतिन्दर एन. कालिया एआईआर 1996 दिल्ली 54 एक दूसरा मामला था जिसमें एनआरआई पति ने कनाडा में तलाक की एक पक्षीय डिक्री ऐसे आधार पर हासिल कर ली जो उसे भारत में उपलभ्य नहीं था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि तलाक की ऐसी डिक्री न केवल भारत में पत्नी द्वारा तलाक की याचिका को नहीं रोकती है क्योंकि यह पूर्व-न्याय के रूप में कार्य नहीं कर सकी, यह पत्नी द्वारा दायर की गई उसकी तलाक याचिका में भरण-पोषण के उसके आवेदन को भी नहीं रोकती है।
न्यायालय ने उन परिस्थितियों की भी जांच की जिनमें पत्नी ने कनाडा में पति की तलाक याचिका का विरोध नहीं किया – कि उसके पास वहां पर कार्यवाही का विरोध करने का कोई साधन नहीं था और तलाक की डिक्री पारित कर दी गई क्योंकि वह हाजिर होने और कार्यवाही का विरोध करने में असमर्थ थी क्योंकि कनाडा जाने की अत्यधिक लागत और अन्य परिस्थितियों ने उसे नि:शक्त बना दिया और उसके पति ने उसकी उस इस नि:शक्तती का लाभ उठाया। इसके अलावा, वह एक मात्र आधार जिस पर पति ने तलाक मांगा था, यह था कि विवाह पूर्णरूप से टूट चुका है, जिसे भारतीय कानून के तहत तलाक का आधार नहीं माना गया है।
न्यायालय मगनभाई बनाम मनीबेन, एआईआर 1985 गुजरात 187 में दिए गए आदेश पर भी निर्भर था कि एक विदेशी न्यायालय का आदेश उन्हीं पक्षों के बीच विवंध या पूर्व-न्याय सृजित करता है परंतु ऐसा आदेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 13 के खंड (क) से (च) तक किसी भी खंड पर हमला नहीं करेगा ।
अनुभा बनाम विकास अग्रवाल (100(2002) डीएलटी 682) एक ऐसा मामला था जिसमें मुद्दा यह था कि संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) के एक न्यायालय से पति द्वारा हासिल ‘बेवज़ह तलाक’ की डिक्री पत्नी पर नहीं थोपी जा सकती जब उनका विवाह हिंदू रिवाज़ों के अनुसार हुआ था और पत्नी यूएसए के न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती और उसने तलाक देने पर सहमति नहीं दी थी।
इस मामले तथ्य यह थे कि वादी, युवा पत्नी, इस घोषणा की डिक्री मांग रही थी कि कि उसे अपने अनिवासी भारतीय पति, प्रतिवादी से अलग रहने की हकदार थी और वादकालीन व्ययों के अलावा अपने पक्ष में भरण-पोषण की डिक्री भी मांग रही थी क्योंकि उसके पति द्वारा उसके साथ क्रूरता करने के बाद विवाह के तुरंत बाद बाद उसका अभित्याग एवं परित्याग कर दिया गया। वाद लंबित रहने के दौरान, जब पत्नी को उसके पति द्वारा यूएसए में तलाक याचिका दायर करने का पता चला तो उसने यूएसए में कार्यवाही से उस कार्रवाई को रोकने के लिए न्यायालय से संपर्क किया जिस पर न्यायालय ने प्रतिवादी को कनैक्टिकट, यूएसए के न्यायालय में तीस दिन तक आगे कार्यवाही करने से रोकने का आदेश दिया। तथापि, आदेश के बावजूद भी, पति ने ‘बेवज़ह तलाक की याचिका’ की कार्यवाही यूएसए में जारी रखी। जब यह तथ्य भारत के न्यायालय के समक्ष लाया गया, भारतीय न्यायालय ने सीपीसी के आदेश एक्स के तहत बयान दर्ज करने के लिए प्रतिवादी को बुलाने का आदेश पारित किया और न्यायालय के समक्ष हाजिर न होने पर, उसकी बचाव को नहीं माना और अवमानना की कार्यवाही शुरू की गई । इन सबके बावजूद, जब पति ने तलाक की डिक्री हासिल कर ली, तब सबसे पहले विचार के लिए यह प्रश्न उठा कि भारत में मामला की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान दिए गए तथ्यों एवं परिस्थितियों में यूएसएके कनैक्टिकट न्यायालय से तलाक की डिक्री कानून के अनुसार प्रवर्तनाय थी या नहीं।
न्यायालय ने माना कि जिस आधार पर प्रतिवादी का विवाह विघटित किया गया था, वह हिंदू विवाह अधिनियम में उपलब्ध नहीं था। पक्षकार हिदू थे, उनका विवाह हिंदू रिवाज के अनुसार किया गया था। इसलिए उनका वैवाहिक विवाद अथवा संबंध हिंदू ववाह अधिनियम के अधीन शासनीय था। चूंकि वादी यूएसए के न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता था और न ही उसने यूएस न्यायालय में तलाक देने की सहमति दी थी, प्रतिवादी द्वारा एूएसए के कनैक्टिकट नालय से हासिल की गई तलाक की डिक्री भारत में न तो मान्य और न ही प्रवर्तनीय मानी गई।
बालासुब्रमणियम गुहान बनाम टी हेमाप्रिया (मनुपत्र में मनू/तमिलनाडु/0165/2005के रूप में रिपोर्ट किया गया) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में पारित आदेश में उसने एक अनिवासी भारतीय विवाह पर धारा 13 लगाई। यहां पर पत्नी ने तलाक के लिए स्कॅटलेंड के न्यायालय द्वारा पारित तलाक की डिक्री को अधिकारातीत, अरक्षणीय, गैर-कानूनी, अप्रवर्तनीय और क्षेत्राधिकार रहित घोषित करने के लिए; यहां याचिकाकर्ता को उक्त डिक्री का प्रवर्तन करने या उक्त डिक्री के तहत दूसरी पत्नी लाने के लिए मांग करके अथवा अन्यथा किसी अधिकार का दावा करने से रोकने के लिए एक वाद दायर किया ।
उच्च न्यायालय ने ऐसे तथ्यों में माना कि यदि कोई भी विदेशी निर्णय सीपीसी की धारा 13 के किसी भी खंड के तहत आता है, यह ऐसे किसी भी मामले में जिसमें निर्णय दिया गया है, अंतिम नहीं होगा और धारा13 में उल्लिखित अधारों पर समपार्श्विक आक्षेप के लिए खुला रहेगा। जैसाकि पत्नी द्वारा दायर किए गए वाद में, पति के पक्ष में दिए गए विदेशी आदेश को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह एकपक्षीय डिक्री थी, न्यायालय जिसने डिक्री पारित की को क्षेत्राधिकार रखने वाला नहीं माना गया क्योंकि जब डिक्री पारित की गई, पत्नी भारत में रहती थी।
न्यायालय के क्षेत्राधिकार से घनिष्ठ रूप से संबंधित मुद्दे का भारतीय न्यायालयों द्वारा कई निर्णयों का विशेषरूप से और क्रमिक तरीके से निपटान किया गया है, जैसा कि कुछ नीचे दिए गए निर्णयों से स्पष्ट होगा ।
इस मुद्दे पर सबसे पहले के निर्णयों में से जागीर कौर बनाम जसवंत सिंह (एआईआर 1963 उच्चतम न्ययायालय 1521) द्वारा दिया गया निर्णय था। जागीर कौर, जसवंत सिंह की पहली पत्नी का विवाह उसके साथ 1930 में हुआ था। शादी के सात वर्ष बाद, जिस दौरान प्रतिवादी बाहर अफ्रीका में था, वह पांचमाह के अवकाश पर भारत आया जब युगल लुधियाना के गांव में अपने पैतृक घर में रहा। इसके बाद, वह अफ्रीका चला गया लेकिन अफ्रीका जाने से पहले उसने दूसरी पत्नी से शादी की और उसे अफ्रीका लेकर चला गया। वह 5 या 6 वर्ष बाद अवकाश पर भारत आया और अपनी पहल पत्नी/वादी को भी अफ्रीका ले गया। वहां उसने एक लड़की, दूसरी वादी को जन्म दिया।जब उनमें विवाह उभरा, उसने उसे इस वादे के साथ कि वह उसे भरण-पोषण के लिए पैसा भेजेगा, वापस भारत भेज दिया लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। वर्ष 1960 में, वह भारत वापस आया। जब वह सच में भारत में था, वादी ने उस अधिकार क्षेत्र में जिसमे उस समय वह रह रहा था, लुधियाना न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 480 के तहत एक याचिका दायर की। याचिका पहले वादी द्वारा अपनी ओर से और दूसरे वादी, जो अवयस्क भी, की अभिभावक के रूप में भी इस आधार पर प्रतिवादी ने उनका परित्याग कर दिया था और उनका भरण-पोषण नहीं कर रहा था, दोनों के लिए भरण-पोषण का दावा करते हुए दायर की गई।
अपील में सबाल यह था कि क्या लुधियाना के मजिस्ट्रेट को दंड प्रक्रियासंहिताकी धारा 488 (8) के तहत याचिका पर सुनवाई का न्यायाधिकार था। सबाल धारा 488 (8) के प्रासंगिक उपबंधों की न्यायालय की व्याख्या में बदल गया जो उक्त धारा, संहिता की धारा 488 (8) के तहत याचिका की सुनवाई के लिए न्यायालय का न्यायाधिकार क्षेत्र नियत करा है, कहती है : किसी व्यक्ति के विरुद्ध इस धारा के तहत कार्यवाही किसी भी ऐसे जिले में जहां वह रहता है, अथवा जहां वह अपनी पत्नी के साथ आखिरी बार रहता था अथवा जैसा भी मामला हो, नाजायज औलाद की मॉं रहती है, की जा सकती है।
उप-धारा के निर्णायक शब्द हैं, ‘निवास करता है’, ‘है’ और ‘जहां वह अपनी पत्नी के साथ आखिरी बार रहा’। न्यायालय ने नोट किया कि 1882 की पुरानी संहिता के तहत केवल उस जिले के न्यायालय का जहां पति अथवा पिता, जैसा भी मामला हो, रहता था, न्यायाधिकार क्षेत्र था। बाद में न्यायाधिकार क्षेत्र को जानबूझकर व्यापक बनाया गया और इसने तीन वैकल्पिक फोरम दिए, नि:संदेह अलग की हुई पत्नी अथवा असहाय बालक को उनकी सुविधानुसार तीनों फोरमों में से किसी एक अथवा अन्य में अत्यधिक आवश्यक एवं तात्कालिक सहायता हासिल करने के लिए उपयोग करने में सक्षम बनाया। इसके अलावा, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि इस धारा के तहत कार्यवाही सिविल कार्यवाही की प्रकृति की होती है, इसका प्रतिकार संक्षेप में होता है और प्रतिकार की मांग करने वाला व्यक्ति सामान्यत: असहाय व्यक्ति होता है, न्यायालय ने महसूस किया कि शब्दों का निर्माण भाषा के साथ निरादर किए बिना उदारता से किया जाना चाहिए। तीनों शब्दों की व्याख्या करते हुए, न्यायालय ने कहा कि उप-धारा में ‘है’ और ‘निवास करत था’ शब्दों को पास-पास रखना ‘निवास करता है’ के भावार्थ पर रोशनी भी डालता है। शब्द ‘है’ आकस्मिक आने के आधार पर न्यायालय को न्यायाधिकार प्रदान करता है और ‘आखिरी बार निवास करता था’ यह संसूचित करता है कि विधायिका ने निवास के तकनीकी भावार्थ में ‘निवास करता है’ शब्द का उपयोग करने का इरादा नहीं रखा था। ‘निवास करता है’ शब्द को ‘आखिरी बार निवास करता था’ अभिव्यक्ति में ‘रहता था’ शब्द से भिन्न भाव नहीं दिया जा सकता है और, इसलिए, उस विन्यास में जिसमें ‘रहता है’ शब्द प्रकट होता है, व्ययापक भाव सटीक बैठता है। ‘रहता है’ शब्द संक्षिप्त भेंट से अधिक भावार्थ देता है लेकिन इतनी निरंतरता का नहीं जो आवास के बराबर हो यद्यपि यह ‘ठहरने’ से अधिक को सूचित करता है और एक स्थान पर रुकने के किसी इरादे को और केवल संक्षिप्त भेंट के लिए आने को नहीं सूचित करता है। एक मात्र परीक्षा, जो की गई, क्या एक पक्ष का एक स्थान पर स्थायी आवास अथवा अनिश्चितकाल तक रहने का का इरादा था; और यदि उसका ऐसा इरादा था, तो उसे अकेले को ‘रहता है’ कहा जाएगा। न्यायालय ने यह भी माना कि शब्द ‘जहां वह अपनी पत्नी के साथ आखिरी बार रहता था’ का अर्थ भारत के क्षेत्र में अपनी पत्नी के साथ उसके आखिरी निवास से है। इसका स्पष्ट अर्थ विदेशी न्यायालय को न्यायाधिकार प्रदान करने के कार्य के लिए विदेश में उसके साथ रहने से नहीं है। इसलिए, यह मानेन के लिए कि वह जिला जहां वह अपनी पत्नी के साथ आाखिरी बार रहा था, भारत का जिला होना चाहिए, उक्त अभिव्यक्ति का निर्माण तर्कसंगत होगा। ‘है’ शब्द के लिए सबसे सुन्दर व्याख्या की गई। न्यायालय ने कहा कि इस संदर्भ में ‘है’ शब्द का अर्थ जिले में व्यक्ति की उपस्थिति अथवा मौजूदगी से है जब कार्रवाई की जाती है। यह ‘रहता है’ से कहीं अधिक व्यापक है: यह व्यक्ति के स्थायी रूप से रहने के इरादे अथवा उसके निवास अवधि या प्रकृति तक सीमत नहीं है। किसी विशिष्ट समय पर उसकी शारीरिक रूप से मौजूदगी मायने रखती है। यह अर्थ अध्याय के उद्देश्य के साथ जहां कही संबंधित खंड आता है, मेल खाता है। इसका इरादा ऐसे व्यक्ति तक पहुंचना है जिसने अपनी पत्नी अथवा बच्चे का परित्याग कर देता है और उसे अथवा दोनों को किसी विशेष जिलेमें असहाय छोड़ देता है और दूर, यहां तक कि विदेश चला जाता है लेकिन उस जिले अथवा पास के जिले में आकस्मिक अथवा सक्षिप्त भेंट के लिए आता है। पत्नी उसकी भेंट का लाभ उठा सकती है और उस जिले में जहां वह है, उसके आवास के दौरान याचिका दायर कर सकती है। हकीकत में न्यायालय इससे आगे भी गया और कहा कि यदि पति जिसने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया है, का कोई स्थायी निवास नहीं है, लेकिन हर समय चलायमान रहता है, पत्नी अपनी सुविधा के स्थान पर पकड़ सकती है और संहिता की धारा 488 के तहत याचिका दायर कर सकती है अथवा वह उसे अचानक किसी ऐस स्थान पर मिल जाती है जहां पर वह संयोगवश आ जाता है और उसके जाने से पहले कार्रवाई कर सकती है।
मामले के तथ्यों में न्यायालय ने माना कि यहां पति ने भारत में ही ‘आखिरी बार निवास’ किया था जब वह भारत आया था और लुधियाना में गांव में अपने घर में अपनी पत्नी के साथ रहा था क्योंकि उस स्थान पर अपनी पत्नी के साथ अस्थायी रूप से रहने का उसका स्पष्ट इरादा था। वह उस स्थान पर आकस्मातिक आगंतुक के रूप में नहीं गया था किंतु वह अपने पैतृक स्थान पर अपनी पत्नी के साथ रहने के निश्चित उद्देश्य से गया था और वह वहां लगभग 6 माह तक रहा। उसका दूसरी बार आना उसे अफ्रीका ले जाने के लिए केवल अल्पकालीन आगमन था। इन हालातों में, यह माना गया कि वह उसके साथ ऐसे स्थान पर रहा जो लुधियाना न्यायालय के न्यायाधिकार क्षेत्र में था। इसके अलावा, यह भी यह भी स्वीकार किया गया कि वह उस तारीख को जिसको वादी ने उसके विरुद्ध अपने भरण-पोषण का आवेदन दायर किया था, ऐसे स्थान पर था जो उक्त मजिस्ट्रेट के न्याधिकार क्षेत्र में था, न्यायालय को याचिका की सुनवाई करने का हर हाल में न्यायाधिकार था़ क्योंकि किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसे किसी भी जिले में, जहां वह हो, सुनवाई हो सकती है। इस न्यायालय के न्यायाधिकार क्षेत्र को कायम रखा गया।
न्यायाधिकार क्षेत्र के बारे में एक और बहुत ही सुधारवादी निर्णय केरल उच्च न्यायालय द्वारा मार्गारेट पुल्पारम्पिल बनाम डा0 चाको पुल्पारम्पिल (एआईआर 1970 केरल) के मामले में स्थान के बारे में पत्नी के ‘वास्तविक एवं सारभूत संबंध’ के सिंद्धांत के आधार पर दिया गया जहां उसने न्यायालय से संपर्क किया। निर्णय में पत्नी एवं बच्चों को पति/पिता के निवास का अनुगमन करने के विरुद्ध व्यवस्था दी गई।
इस मामले में, पिता, प्रथम प्रतिवादी, भारतीय नागरिक ने अपीलकर्ता पत्नी जो जर्मन है, से गिरजे की परंपरा के अनुसार विवाह किया, जो उसे तब मिली थी जब वह दवाओं का अध्ययन करने जर्मनी गया था। उनके दो बच्ये पैदा हुए, परंतु आपस में कुछ मतभेद हो गए । अपीलकर्ता और उसके पति द्वारा लगभग एक साथ ही जर्मनी की अदालत में अप्रोच की गई। पिता ने मां के साथ रह रहे बच्चों को पिता को सुर्पुद करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया तथा अलग अलग होने के शीघ्र बाद मां ने विवाह-विच्छेद के लिए मुकदमा कर दिया। अत:, पति ने बच्चों को उसे सुपुर्द करने के लिए जर्मनी की अदालत में याचिका दर्ज की। इसके उपरांत पक्षकारों ने जर्मनी की अदालत में दर्ज की गई बच्चों को सौंपने के बारे में नए विषय पर सहमति जताई ।
इसी बीच पत्नी की विवाह-विच्छेद याचिका जर्मनी की अदालत द्वारा खारिज कर दी गई। याचिकाकर्त्ता पत्नी ने उस आदेश के खिलाफ अपील की तथा चूंकि याचिका लम्बित थी, मां के आवेदन पर जर्मनी की अदालत द्वारा पिता को बाल भरणपोषण अदा करने का आदेश दिया गया। इसके शीघ्र उपरांत, पिता एक दिन बच्चों को मां के पास से अपने साथ ले गया और शाम को उन्हें मां को लौटाने के बजाए उन्हें टैक्सी में बैठाकर एयरपोर्ट ले आया तथा बच्चों के साथ भारत जाने के लिए हवाई जहाज पकड़ लिया। पिता ने न तो अपने बच्चों की मां को अपने प्रस्थान के बारे में सूचित किया और न ही भारत पहुंचने के बाद उसे कोई संदेश दिया ।
काफी सारी जांच पड़ताल के बाद मां ने जर्मनी में जहां विवाह-विच्छेद का मामला लम्बित था अपीलीय अदालत के समक्ष अगले दिन एक याचिका डाली तथा एक आदेश प्राप्त किया जिसमें यह आदेश दिया गया था कि पिता बच्चों की अभिरक्षा मां को सौंपे। इस आदेश के बाद भी कुछ हासिल नहीं हुआ और मां इस बारे में पूछताछ ही करती रही कि उसके बच्चे कहां हैं। कुछ समय बाद बच्चों को अनुरक्षण देने के आदेश के खिलाफ पिता द्वारा की गई अपील को जर्मनी की अदालत द्वारा खारिज किया गया तथा साथ ही विवाह-विच्छेद की पत्नी की अपील को अनुमति दी गई और विवाह को जर्मनी में भंग कर दिया गया। इसी दिन एक अन्य जर्मन अदालत द्वारा अन्य आदेश पारित किया गया जिसमें निदेश दिया गया कि बच्चों की अभिरक्षा मां को दी जाए। जब पत्नी भारत आई और उसने बच्चों को लौटाने के बाबत भारतीय अदालत में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की, उच्च न्यायालय को बताया गया कि पिता का मूल निवास स्थान भारत था तथा मां का जर्मनी। यद्यपि निजी अंतर्राष्ट्रीय विधि के कानूनों के अनुसार, इस मामले में मां और बच्चों का निवास स्थल वही होगा जो पिता का है तथा अत: पिता, मां और बच्चे भारतीय प्रक्षेत्र के थे, इस नियम के अनुसार भारतीय अदालकत का क्षेत्राधिकार बनता है।
अदालत ने कहा कि एक सक्षम जर्मनी अदालत को इस आधार पर कि याचिकाकर्ता पत्नी के उस अदालत वाले देश के साथ एक ‘एक वास्तविक और मजबूत संपर्क’ थे तथा साथ ही बच्चे उस देश के सामान्यतया निवासी थे, तथा, अथवा बच्चों की अभिरक्षा की डिक्री पास करने का क्षेत्राधिकार होगा।
अन्य बाल अभिरक्षा मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा सुरिन्द्र कौर संधु बनाम हरबक्स सिंह संधु, एआईआद 1984 में देखा गया कि, कानूनों के उल्लंघन का आधुनिक सिद्धांत मान्यता देता है, तथा, किसी मामले में राज्य के क्षेत्राधिकार को प्राथमिकता देता है जिसका मामले में उठने वाले मुद्दों के साथ घनिष्ठ संबंध है । क्षेत्राधिकार, आकस्मिक परिस्थितियों जैसेकि वे परिस्थितियां जो बच्चे से संबंधित हों, जिसकी अभिरक्षा का मामला हो, बच्चे को लाया गया हो अथवा कुछ समय के लिए रखा गया हो, जो आप्रेशन अथवा सृजन से संबंधित नहीं हो। ऐसी परिस्थितियों में अन्य राज्य द्वारा क्षेत्राधिकार की स्वीकृति की अनुमति देना केवल अदालत को बढ़ावा देना होगा। इस मामले में, जबकि पत्नी अभी इंग्लैंड में थी, पति ने बच्चों को माता-पिता के निवास स्थल से दूर भारत में गुप्त रूप से रखा तथा बच्चों की अभिरक्षा के मामले में इंग्लिश अदालत के क्षेत्राधिकार पर सवाल उठाए, जिसमें भारतीय अदालत ने उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी, जबकि इंग्लिश अदालत ने, जंहा वैवाहिक और बालगृह अवस्थित थे, इंग्लैंड में बच्चों की अभिरक्षा संबंधी आदेश पहले ही पास कर दिया था।
दीपक बैनर्जी बनाम सुदिप्ता बैनर्जी (एआई आर1987 सीएएल 491)में, अनुरक्षण की धारा 125 के अंतर्गत पत्नी द्वारा शुरू की गई कार्यवाहियों की सुनवाई तथा विचार करने पर पति ने भारतीय अदालत के क्षेत्राधिकार पर सवाल उठाए, तर्क देते हुए कहा कि भारत में किसी अदालत के पास ऐसी कार्रवाई की सुनवाई करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सेंस का क्षेत्राधिकार नहीं था। जबकि उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक होने का दावा किया तथा उसकी पत्नी के निवास को भी उसके निवास की तरह देखा जाए। अदालत ने निर्णय दिया कि प्रत्येक ऐसे मामले में जहां कहीं कानून का उल्लंघन होता है भारतीय कानून का अनुरक्षण करते हुए निर्णय लिया जाना चाहिए तथा अन्य देशों में लागू निजी अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम भारतीय अदालतों द्वारा यंत्रवत अंगीकार नहीं किए जा सकते। अदालत ने महसूस किया कि आपत्ति को देखते हुए तथा धारा 125 और 126 के सामाजिक प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए पति द्वारा की गई आपत्ति तर्कसंगत नहीं थी और भारतीय अदालत के क्षेत्राधिकार को परिपुष्ट किया गया। क्योंकि वह जहां साधारणतया रहती थी वह अदालत के क्षेत्राधिकार में था।
श्रीमती एम बनाम श्री ए आई (1993) डीएमसी384)में, बाम्बे उच्च न्यायालय में दायर एक अपील में, अपीलकर्ता पत्नी ने हस्टन, यूएसए में विधिवत हुए अपने विवाह की अमान्यता की डिक्री के लिए निवेदन किया था। वैकल्पिक रूप से, उसने क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए निवेदन किया था। यह याचिका मूल रूप से विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के उपबंधों के अंतर्गत बाम्बे की अदालत के समक्ष दायर की थी जो विेदेशी विवाह अधिनियम, 1969 की धारा 18 के उपबंधों के अनुसार पक्षकारों पर लागू थी। सुनवाई कर्ता न्यायाधीश ने इस आधार पर याचिका को खारिज कर दिया कि न्यायालय अपेक्षित क्षेत्राधिकार में नहीं आता है क्योंकि यह कानून की अपेक्षा है कि याचिकाकर्ता याचिका प्रस्तुत करने की कार्यवाही से 3 वर्ष की अवधि से पूर्व से निरंतर भारत मे रह रहा होना चाहिए। उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि याचिका की प्रस्तुति से ठीक 3 वर्ष से कम अवधि संदर्भित धारा के रहते विधिवत सुनवाईकर्ता न्यायाधीश ‘निरंतर’ शब्द का औचित्य नहीं दे सके। इस मामले में कठिनाई यह आ रही थी कि याचिकाकर्ता ने दिसम्बर 1986 में भारत छोड़ दिया था तथा अगस्त 1987 में वापस भारत आया और याचिका अप्रैल 1988 में दायर की गई। न्यायालय ने इस सच्चाई को भी ध्यान में रखा कि याचिकाकर्ता ने भारत से उत्प्रवास नहीं किया था जिससे इस तथ्य द्वारा संस्थापित हुआ कि वह केवल एक ‘पर्यटक वीजा’ पर देश से बाहर गई थी तथा वस्तुत: वह लौट आई और वह कुल मिलाकर स्थाई रूप से यहां कि निवासी हो गई । अदालत ने कहा कि चूंकि इस देश की वैवाहिक संविधि में, यदि कोई संबंधित पक्ष वहां वास्तव में निवासी है तो कानून अदालत को स्थानीय क्षेत्राधिकार देता है तथा नैमित्तिक अल्पावधि दौरों के आधार पर नहीं।
इंदिरा सोन्टी बनाम सूर्यनारायण मूर्ति सोन्टी (94(2001)डीएलटी 572) में, वादी पत्नी ने अमेरिका की यात्रा की तथा वहां रहने वाले एक अनिवासी भारतीय से विवाह किया परंतु वादी को उसके पति द्चारा परित्यक्त कर दिया गया। भारत आने के बाद उसने हिंदू दत्तक ग्रहण और अनुरक्षण अधिनियम के अंतर्गत भारतीय न्यायालय में भरण-पोषण के लिए मुकदमा दायर किया । चूंकि विवाह अमेरिका में हुआ था, पत्नी ने अर्जीदावे में प्रकथन दिया कि मुकदमे की कार्यवाही दिल्ली में बनती है। उसके पिता ने प्रतिवादी पति के साथ उसके विवाह के लिए उसके ससुर को अप्रोच किया था तथा दोनों पक्षों में विवाह करने की यह चर्चा नई दिल्ली में की गई थी कि विवाह यूएसए में किया जाएगा। वादी द्वारा यह भी कहा गया कि उसके ससुर ने उसके पिता को यह सूचित करने के लिए दिल्ली में फोन किया था कि वह वादी को वापस दिल्ली भेज रहा है ससुर ने उसके पिता को फोन पर विवाह-विच्छेद की कार्यवाही के लिए सम्मति देने के लिए भी कहा था।
अदालत ने निर्णय दिया यदि विधान इसमें दखल देता है तथा हिंदू दत्तकग्रहण् और अनुरक्षण अधिनियम के अंतर्गत स्वयं अधिनियम में आपराधिक प्रकिया संहिता की धारा 126 द्वारा सुझाए गए अनुसार भरण-पोषण का दावा करने के मामले में क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार से संबंधित कोई विशेष प्रावधान बनाता है, तो उचित होगा।
चूंकि अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 126 में निहित प्रावधान सोसायटी की जरूरतों की तर्ज पर अधिक है, तथापि हिंदू दत्तक ग्रहण और अनुरक्षण अधिनियम में किसी प्रावधान में, क्या सीपीसी की धारा 20 में विहित सिद्धांत अथवा अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 126 में विहित सिद्धांत शासी होगा। प्रश्न पर चर्चा की गई जिसे न्यायालय को उचित चरण पर स्वयं निवारण करना था, फिर भी न्यायालय उद्देश्यपरक दृष्टिकोण का उन्नत निर्णय अंगीकार कर सकता है। चूंकि कानून के इस महत्वपूर्ण प्रश्न से उचित चरण पर निपटना था न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस विशेष मामले में यद्यपि सीपीसी की धारा के प्रावधान लागू किए गए थे। वादी का मामला दिल्ली में हुए कार्य का भाग था, अत: दिल्ली न्यायालय के पास इस मामले का क्षेत्राधिकार था।
सोन्दुर रजनी बनाम सोन्दुर गोपाल (2005(4)एमएचएल से (88) में, तथ्य इस प्रकार थे : अपीलकर्ता पत्नी की याचिका अन्य बातों के साथसाथ हिंदू विवाह अधिनियम की धारा10 के अंतर्गत न्यायिक विवाह-विच्छेद, छोटे बच्चों की अभिरक्षा और भरणपोषण मांगने के लिए दायर की गई। अनिवासी भारतीय पति ने आपत्ति की कि पति द्वारा दायर याचिका इस आधार पर अनुरक्षणीय नहीं थी कि पक्षकार स्वीडन के नागरिक थे तथा भारत में नहीं रहते थे तथा अत: पारिवारिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार को हिंदू विवाह की धारा 1(2) के उपबंधों के तहत रोका गया। चूंकि इसके विपरीत, पत्नी द्वारा किया गया मामला था मूल निवास भारत में तथा उन्हें कभी छोड़ा अथवा परित्यक्त नही किया गया। यद्यपि उन्होंने स्वीडन की नागरिकता ली थी तथा तब आस्ट्रेलिया गए थे ।
पति के आवेदन को इस आधार पर उसके द्वारा चुनौती दी गई थी कि यद्यपि यह माना गया था कि उसने स्वीडन में निवास किया था, उसने अपना भारतीय निवास स्थल कभी नही बदला तथा अपने निवासस्थल को भारत में बनाए रखा। विकल्प के रूप में, यह तर्क दिया गया कि यद्यपि यह माना गया था कि उसने स्वीडन को भी अपना निवास स्थल बनाया था, जिसे दोनों पक्षकारों द्वारा परित्यक्त किया गया और आस्ट्रेलिया शिफ्ट हो गए। अत: अपने मूल निवास स्थान अर्थात भारत में आ गए। संक्षेप में, पत्नी का मामला था कि वह और उत्तरदाता दोनों भारत में निवास कर रहे थे तथा, अत:, मुम्बई में पारिवारिक न्यायालय के पास न्यायिक विवाह-विच्छेद की डिक्री चाहने के लिए उसकी याचिका पर विचार करने का क्षेत्राधिकार था। उन्होंने भी प्रस्तुति दी कि एक बार हिंदू विवाह अधिनियम लागू होने पर उक्त अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं है कि जो किसी तदंतर चरण पर लागू होने को बंद करता है और इसलिए पति द्वारा उठाया गया निवासस्थान का मामला अधिनियम की स्कीम को ध्यान में रखते हुए अप्रासंगिक था। तथापि, नागरिकता अधिग्रहणता और निवासस्थल परस्पर स्वतंत्र हैं तथा किसी मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि स्वीडन की नागरिकता ग्रहण करके उन्होंने उस देश में निवास किया। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 19 का संदर्भ देते हुए उन्होंने माना कि पक्ष्कारों को एवं वैवाहिक याचिका में किसी क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में जाने के लिए धारा 19 की किसी एक अपेक्षा को पूरा करना चाहिए तथा धारा 19 कुल मिलाकर, निवास के मामले में मूक है। उन्होंने आगे माना कि यदि भारतीय अधिवास की जरूरत हिंदू विवाह की प्रयोज्यता के लिए आवश्यक है तो हिंदू पत्नी को जहां कहीं उसके पति ले जाएं, जिसमे एक स्थान से दूसरे स्थान जाना अपेक्षित होता है, इससे बहुत कठिनाई होगी तथा बहुत गंभीर सामाजिक समस्या को सहन करना होगा । उसके द्वारा आगे बताया गया कि यद्यपि निवासी की जरूरत निजी पक्षकारों के अधिवास पर विचार करने के लिए आवश्यक प्रासंगिक तारीख की जरूरत थी, जो विवाह की तारीख थी तथा न कि याचिका को दायर करने की तारीख। उन्होंने यह दावा किया कि कानून (संशोधन) अधिनियम 2003, अधिनियम 2003 की संख्या 50, पत्नी की याचिका जहां वह याचिका प्रस्तुत करने की तारीख से निवास कर रही है, की सुनवाई तथा विचार करने के क्षेत्राधिकार से 23.3.2003 को प्रतिष्ठापित हुआ।
अदालत ने पत्नी की दलीलों को तत्वत: स्वीकार किया तथा निर्णय दिया कि 2003 संशोधन हिन्दू पत्नी द्वारा सामना की जा रही कठिनाइयां का उन्मूलन करने के लिए किया गया, जो संशोधन अधिनियम 2003 के 50 की आपत्ति और कारकों के कथन का साक्षी है। विधान पत्नी को ऐसी याचिका करते समय जहां वह रह रही थी अधिनियम में निहित प्रावधानों के तहत राहत मांगने की याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान करने के लिए अभिप्रेत है। जो धारा 19 के सभी खण्डों में कामन है, वो निवास शब्द है। परन्तु खण्ड (ii), (iiiक) तथा (iv) के उपबंधों पर पैनी निगाह दर्शाएगी कि वे निवास की लम्बाई यानी कितने समय तक निवास तथा अथवा विशेषता को विनिर्दिष्ट नहीं करते हैं। न्यायालय ने महसूस किया इसका अर्थ यह नहीं होगा कि कोई निवास जो बिल्कुल अस्थाई प्रकृति का है, स्थाई रूप से रहने अथवा समय की व्यापक लम्बाई के इरादे रहित है।
इस प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम की धाराओं 1,2 तथा 19 का संयुक्त पाठन दर्शाएगा कि अकेला अधिवास अधिवास अधिनियम के तहत राहत लेने की याचिका का रखरखाव करने के लिए पर्याप्त नहीं है, तथा भारत में अधिवास से जुड़ा निवास भारत मे न्यायालयों में ऐसी याचिका का रखरखाव करने के लिए आवश्यक होगा। परंतु हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत किसी याचिका को दायर करने के समय किसी पत्नी का अपने मातापिता के साथ निवास न्याय के क्षेत्राधिकार के लिए पर्याप्त होगा जहां उसके माता पिता रहते हों। अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 19 की उपधारा (iiiक) के अंतर्गत उसकी याचिका पारिवारिक न्यायालय, मुम्बई में अनुरक्षणीय होगी।
तब न्यायालय ने छानबीन की कि चूंकि भारत का कोई निवासी हिंदू विवाह अधिनियम के उपबंधों की प्रार्थना के लिए पूर्व निर्णय की एक स्थिति है, तो प्रासंगिक समय क्या होगा, क्या विवाह की तारीख या याचिका प्रस्तुत करने की तारीख। इस मामले में, स्वीकारोक्ति से, हिंदू विवाह वैदिक परंपरा को तथा हिंदू विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत विवाह को मान्यता दी गई तथा अधिनियम का कोई भी उपबंध समय को निर्धारित नहीं करता है और वह स्थिति जिसके तहत इसको लागू करना बंद किया जाए।
अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने पर विवाह के अस्तित्व तक तथा विवाह के भंग होने तक स्वत: लागू रहेगा। हिंदू विवाह विवाह के पक्षों तथा उनकी संतति को काफी सारे अधिकार और दायित्व देता है।
अत:, विवाह पर शासी कानून व्यवस्था स्थिर रहनी चाहिए तथा विवाह के पक्षों की मौज अथवा सनक को नहीं बदल सकता यह सार्वभौमिक रूप से माना गया है कि किसी मानव के वैयक्तिक स्तर को प्रभावित करने वाला प्रश्न किसी एक तथा समान कानून द्वारा स्थिर रूप से शासी नहीं होना चाहिए। इस बात का ध्यान किए बिना जहां वह हो सकता है अथवा जहां तथ्यात्मक प्रश्न उठ सकते हैं। यदि स्थिति रखी जाती है कि वह समय जिसको अधिवास तय किया जाता है तो हिंदू विवाह अधिनियम के तहत कार्यवाही शुरू की जाती है । तब, पत्नी द्वारा दायर प्रत्येक याचिका जिसका पति नौकरी अथवा किसी अन्य प्रयोजन के लिए, जो कोई भी हो एक देश से दूसरे देश जाता है, याचिका की प्रस्तुति तथा मामले की सुनवाई के बीच भी उसके अधिवास को बदलते हुए पत्नी द्वारा दी गई याचिका से खिन्न होगा । अत: न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त नियम ’एक बार सक्षम सदा सक्षम’ था। यद्यपि विवाह के समय भारत में अधिवासित पक्षकार ने चूंकि अपना अधिवास बदल लिया है। भारत में न्यायालय द्वारा अपनी स्थिति के निर्धारण से स्वयं को असंबद्ध किया। कानून की स्थिति पर बहस की गई, कि जब से कार्यवाही शुरू की गई हो अधिवास का समय तय किया जाना है। अत: यह देश सार्वजनिक नीति के विरूद्ध होने के नाते इसे स्वीकार नहीं किया गया जिससे गंभीर सामाजिक समस्या उत्पन्न हो सकती है। न्यायालय ने कहा कि पक्षकारों के अपने वैयक्तिक कानून के रूप में हिंदू विवाह अधिनियम को चुनने पर, स्थिति की आकस्मिकताओं के अनुसार अथवा अपन सनक तथा मौजों के अनुसार व इसका अधित्याग नहीं कर सकते। तत्संबंधी प्राकृतिक उपसिद्धांत के रूप में यद्यपि वैवाहिक याचिका का कोई पक्ष संस्थापित करता है कि विवाह के उपरांत उसने कुछ अन्य देशों में अपना अधिवास करना है, तो यह भारत में किसी न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर नहीं होगा यदि विवाह की तारीख पर उसका निवास भारत था तो यह न्यायपूर्ण नहीं है कि विवाह का कोई पक्ष या उसके एक पक्षीय निर्णय के तहत वैयक्तिक कानून के अपनी समग्र व्यवस्था को बदल सकता है यदि अनुमति दी गई तो पत्नी की स्थिति बहुत दयामय अथवा निस्सहाय बन जाएगी हिंदू विवाह अधिनियम के उपबंध पक्षों के विवाह पर निरंतर लागू होगें जिनका अपने विवाह की तारीख को भारत में अधिवास था तथा उनकी इसके बारेमें बाद में शिकायत करने की सुनवाई नहीं हो सकती अथवा टालमटोल के तहत इसके बाईपास को अनुमति नहीं दी जा सकती ।
न्यायालय ने यह भी कहा कि भारतीय तथा इंग्लिश निजी अंतर्राष्ट्रीय दोनों कानूनों के तहत अधिवास के संबंध में चार सामान्य नियम हैं: कोई भी व्यक्ति बिनाअधिवास के नहीं रह सकता; किसी भी व्यक्ति के एक ही समय में दो अधिवास नहीं हो सकते; अधिवास कानून की क्षेत्रीय प्रणाली वाले किसी व्यक्ति का संबंध दर्शाता है; और मौजूदा अधिवास की निरंतरता के पक्ष में प्रकल्पना है
महत्वपूर्ण केस कानून :-
रूचि माजू बनाम संजीव माजू केस सं. : 2011 की अपराधिक अपील सं. 1184 सहित 2003 की सिविल अपील सं. 4435, निर्णय की तारीख : 16 मई 2011
रूचि माजू बनाम संजीव माजू में भारत के उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया जिसमें भारत में कानूनी लड़ाई लड़कर, अपने अनिवासी भारतीय/विदेशी पति द्वारा परित्यक्त भारतीय महिला की आशा की किरण नजर आती है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय न्यायालय के पास छोटे बच्चों के अभिरक्षा के विवादों से निपटने का क्षेत्राधिकार है, यद्यपि किसी विदेशी न्यायालय मातापिता के पक्ष में आदेश पास किया हो। न्यायाधीश वीएस सिर्पुर्कर तथा टीएस ठाकुर की बेंच ने अपने निर्णय में कहा कि क्योंकि एक विदेशी न्यायालय ने अवयस्क के कल्याण के संबंध में किसी पहलु पर विशेष दृष्टिकोण रखा है, जो इस मामले के स्वतंत्र विचार रखने को रोकने हेतु इस देश में न्यायालयों के लिए पर्याप्त नहीं है। वास्तव में, तथा घृणित अभ्यार्पण न हो, ऐसे मामलों में मंत्रा है। रूचि माजू द्वारा दायर अपील को अपहोल्ड रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने निर्णय पारित किया, जिसमें उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी गई थी।
यदि किसी विदेशी न्यायालय द्वारा कोई डिक्री या आदेश पहले पास किया गया है तो भारतीय अदालतों को किसी याचिका पर विचार करने के लिए ‘अदालतों का समूह’ की डाक्ट्रायन के अंतर्गत कोई क्षेत्राधिकार नहीं है।
वर्ष 2008 में पत्नी के पास भारत लौटने से पहले दम्पत्ति यूएस में बच्चे के साथ रह रहे थे । दिल्ली की अदालत ने संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम के अंतर्गत बच्चे की अभिरक्षा संबंधी रूचि के आवेदन को अनुमति दे दी। तथापि, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुनवाई न्यायालय के आदेश को नहीं माना और समस्त तीन यूएस नागरिकता के रूप में कैलिफोर्निया न्यायालय में स्वयं पेश होने के लिए कहा।
क्षुब्ध पत्नी ने उच्चतम न्यायालय में अपील की जहां उसने अपने पति पर अश्लील तथा व्यभिचारी संबंधों में लिप्त होने के आरोप लगाए। हांलांकि पति ने इन आरोपों को नकारते हुए कहा कि भारतीय न्यायालय को कोई क्षेत्राधिकार नहीं है, क्योंकि कैलिफोर्निया न्यायालय द्वारा पहले ही इस मामले में डिक्री की जा चुकी है। पति की दलीलों को निरस्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने विदेशी न्यायालय द्वारा पास आदेशों तथा डिक्री को मान्यता देते हुए कहा कि जब कभी इस देश की अदालतों में ऐसा मामला आता है निरंतर दुविधा रहती है, न्यायालय 1999 और 2002 के संशोधन अधिनियम द्वारा यथा संशोधित अपराधिक प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा13 के उपबंधों को ध्यान में रखते हुए ऐसी डिक्री तथा आदेशों की वैधता तय करने के लिए बाध्य है।